News By – नीरज बरमेचा
- टाइम्स ऑफ़ इंडिया – 3.5*
- मिड डे – 4*
- तरण आदर्श – 3.5*
- नवभारत टाइम्स – 3.5*
- एन डी टीवी – 2.5*
2016 की दिसंबर में आई थी ‘दंगल’. सुपर-डुपर से भी ऊपर वाली हिट. अब उसी के डायरेक्टर ‘नितेश तिवारी’ अपनी अगली फिल्म लेकर आए हैं. नाम है ‘छिछोरे’. फिल्म का कोई ख़ास प्रमोशन, कोई हो-हल्ला कम से कम मेरी निगाह से तो नहीं गुज़रा. इसलिए फिल्म देखने मैं सिर्फ इस उम्मीद पर गया था कि ‘दंगल’ वाले डायरेक्टर की मूवी है, कुछ अच्छा मिल सकता है. क्या ये उम्मीद पूरी हुई. हां. बिल्कुल हुई. उम्मीद से ज़्यादा उम्मीद पर खरी उतरी है फिल्म. “छिछोरे”|
फिल्म की खूबी बताने से पहले उसकी एक खामी बता दूं. फिल्म का टाइटल फिल्म के किरदारों पर बिल्कुल सूट नहीं करता. जितने भी मेन किरदार हैं, उनमें से कोई भी ऐसा नहीं जिसे छिछोरा कहा जा सके. खैर, तो कहानी शुरू होती है एक तलाकशुदा कपल से जिनका बेटा पढ़ाई के स्ट्रेस में जी रहा है. उसे लगता है कि कामयाब होना ही इकलौता ऑप्शन है. और जब वो फेल हो जाता है तो अपनी जान देने की कोशिश करता है. क्यों? क्योंकि उसका मानना है कि लूज़र बनके जीने का कोई मतलब नहीं. बच्चे के इस एक्स्ट्रीम कदम से हैरान-परेशान मां-बाप समझ ही नहीं पाते कि ये क्या हो गया! फिर आईसीयू में बेटे के सिरहाने बैठकर बाप बेटे को अपनी जवानी के वो किस्से सुनाता है, जब वो और उसके साथी घोषित लूज़र हुआ करते थे. स्पॉइलर-स्पॉइलर मत चिल्लाइए, क्योंकि अब तक जो बताया वो फिल्म के पहले 10-15 मिनट में हो जाता है.
असली मज़ा तो उन किस्सों में है, जो बाप ने बेटे को सुनाए. उनके कॉलेज जीवन की उन यादों में है, जिनसे आपका अपना नॉस्टैल्जिया उछलकर बाहर आ जाएगा. और अगर आप कभी किसी होस्टल में रहे हैं तो फिर पक्का इस फिल्म से तगड़ा वाला कनेक्शन फील करेंगे. अन्नी, सेक्सा, एसिड, मम्मी, डेरेक, बेवड़ा और माया. इन सातों की कॉलेज लाइफ आपको गुदगुदाने और कभी-कभी तो ठहाके लगाने पर मजबूर करके रहेगी.
फिल्म की सबसे बड़ी खूबी यही है कि नाम ‘छिछोरे’ होने के बावजूद ह्यूमर छिछोरा नहीं है. अश्लीलता की बॉर्डर लाइन पर नहीं मंडराता. ह्यूमर ऐसा ही है जैसे दोस्तों के बीच सहज ही दिखाई पड़ता है. कुछ पंच लाइंस, कुछ सीन्स तो बहुत ही हिलेरियस हैं. जैसे सेक्सा का अन्नी को ये कहना कि इंजीनियरिंग कॉलेज में हॉट लड़की हेलिज़ के धूमकेतु की तरह होती है, 76 साल में एक बार आती है. स्पोर्ट्स कम्पटीशन के लिए स्लोगन लिखने वाला सीन मज़ेदार है. और खानसामे को कोच फर्ज़ी कोच बनाने वाला सीन तो ग़ज़ब का हास्य पैदा करता है. इन्हीं छोटे-छोटे लम्हों में फिल्म बड़ी हो जाती है.
फिल्म कुछेक स्टीरियोटाइप्स भी तोड़ती है. जैसे हिंदी फिल्मों में रैगिंग लेने वाले सीनियर्स हमेशा बुरे ही होते आए हैं. यहां ऐसा नहीं है| खूबियों के खाते में तमाम लीड किरदारों की सहज, सुंदर एक्टिंग को भी गिन ही लीजिए. सुशांत सिंह राजपूत झक्कास काम करते हैं. श्रद्धा से पहली बार बात करते वक्त उनकी हकलाहट वाला सीन उनकी नायाब अदाकारी का शानदार सर्टिफिकेट है. बॉयज़ वाली फिल्म में श्रद्धा के हिस्से ज़्यादा कुछ नहीं आया लेकिन जितना आया उन्होंने उम्दा ढंग से निभाया. हां, बुढ़ापे वाले दौर में वो सुशांत से ज़्यादा कन्विंसिंग लगती हैं. वरुण शर्मा भयानक स्टीरियोटाइप्ड हो गए हैं. उनके अंदर से ‘फुकरे’ का चूचा निकलता ही नहीं. लेकिन ये बात भी है कि वो सब उन पर जंचता भी है.
घिसे हुए सीनियर डेरेक के रोल में ताहिर राज भसीन भी अच्छे लगते हैं और गालियां बकने के आदी एसिड के किरदार में नवीन पोलिशेट्टी भी. बात-बात पर मम्मी को याद करने वाले डरपोक विद्यार्थी का रोल तुषार पांडे ने मज़ेदार ढंग से निभाया. और दारु में गोते लगाने वाला बेवड़ा सहर्ष शुक्ला ने मस्त पोट्रे किया. हैरान प्रतीक बब्बर करते हैं. विलेन टाइप सीनियर का रोल उन्होंने सलीके से निभाया है. उन्हें और फ़िल्में करनी चाहिए.
नितेश तिवारी का डायरेक्शन उम्दा है. वो ह्यूमर का संतुलन भी बनाए चलते हैं और कहानी में उत्सुकता भी बनाए रखते हैं. हां फिल्म थोड़ी सी खिंच ज़रूर गई है. छोटी की जा सकती थी. एक और बात, जब तमाम दोस्त बूढ़े दिखाए गए हैं, तो उनका मेकअप बहुत नकली सा लगता है. मतलब सिर्फ चेहरा बदल दिया और बाकी शरीर सब वैसा ही. ये अलग से फील होता है. ये भी टाला जा सकता था. इसके अलावा बाकी सब चकाचक है.
फिल्म एक ज़रूरी मैसेज भी देती है और भी बिना ज्ञान की गंगा बहाए. हंसते-खेलते. वो ये कि सक्सेस के बाद का प्लान सबके पास है लेकिन फेल होने के बाद क्या करना है ये कोई नहीं बताता. ये भी कि हमेशा आप जीते ही, ये ज़रूरी नहीं. ज़रूरी कुछ है तो वो ये कि आप नाकामी का राक्षस अपने पर हावी न होने दें. बस आगे बढ़ते रहें. महज़ इस संदेस भर के लिए देखी जानी चाहिए फिल्म.