News by – विवेक चौधरी
रतलाम। 5 प्रदेश में हुए विधानसभा चुनाव में से हिंदी भाषी क्षेत्र के मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में भाजपा की जीत से पार्टी कार्यकर्ताओं में गजब का उत्साह है। मध्यप्रदेश में तो भाजपा विधायकों की संख्या 160 के पार पहुँच गई। जबकि यहाँ काँग्रेस बहुत ज्यादा आशान्वित नज़र आ रही थी। काँग्रेस की ओर से मुख्यमंत्री का चेहरा कमलनाथ थे और उनके बेटे तथा छिंदवाड़ा सांसद नकुलनाथ ने तो 7 दिसंबर को कमलनाथ के शपथ ग्रहण का दावा तक कर दिया था। फिर ऐसा क्या हुआ कि भाजपा ने अपना वोट प्रतिशत और विधायकों की संख्या में अच्छी बढ़त ले ली? इसका जवाब एक मंत्र में मिलेगा जो है “ॐ नम: शिवाय”। यदि इस मंत्र को प्रदेश की राजनीति के परिदृश्य में समझने की कोशिश करेंगे तो आपको जवाब मिल सकता है। आइए इसे समझने की कोशिश करते है।
मंत्र का पहला अक्षर “ॐ”
सनातन धर्म के मंत्रों में ॐ का बड़ा स्थान है और इसे आधार रखकर आप भाजपा की सनातन धर्म की गणित के ज्ञान को समझ सकते है। देश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ सनातन धर्म का सबसे बड़ा पैरोकार रहा है। और इस चुनाव में उसकी महती भूमिका रही है। उन्हें यह लगने लगा है कि वर्तमान समय उनके लक्ष्यों के लिए अनुकूल है और देश के बहुसंख्यकों का मन मिज़ाज़ भी इसी दिशा में जा रहा है। उन्होंने गांव गांव में जाकर अपने सम्पर्क के माध्यम से अधिकाधिक मतदान की अपील की। सनातन धर्म और राष्ट्रवाद में मतदाताओं की भूमिका पर प्रकाश डाला। विश्व में भारत की बढ़ती लोकप्रियता और प्रभुत्व पर नागरिकों का ध्यान को आकर्षित किया। राम मंदिर को उपलब्धि के रूप में पेश किया। जिसका असर चुनाव में साफ देखने को मिला। जहाँ विपक्षी गठबंधन “इण्डिया” के कई दल सनातन के बारे में अपशब्दों का प्रयोग कर रहे थे, वहीं स्थिति को भाँपते हुए काँग्रेस के कमलनाथ अपने घर में बाबा बागेश्वर और पंडित प्रदीप मिश्रा की कथा करवा रहें थे। सनातन का प्रभाव काँग्रेस समझ चुकी थी इसलिए कमलनाथ ने इण्डिया गठबंधन की संयुक्त सभा भोपाल में नहीं होने दी और 230 में से मात्र ही 2 उम्मीदवार मुस्लिम समुदाय से चुने, वो भी स्थानीय समीकरणों के अनुरूप। इस चुनाव ने आनेवाले समय के लिए सनातन के समर्थकों की एकजुटता और वोट बैंक के महत्व को सभी राजनैतिक विश्लेषकों और दलों को समझा दिया। यानि इस चुनाव में सनातन एक महत्वपूर्ण बिंदु रहा है।
मंत्र का दूसरा अक्षर “नमः”
यहाँ आप नमः को नमो समझ सकते है। आजकल राजनैतिक गलियारों में नमो शब्द देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए प्रयोग किया जाता है। भाजपा ने हिंदी पट्टी के तीनों राज्यों को 2024 लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल के रूप में लिया और नरेंद्र मोदी को प्रचार का मैजिक मंत्र बनाया। इसमें कोई दो राय नहीं है कि इस वक्त देश में निर्विवादित रूप से मोदी सबसे बड़ा राजनैतिक चेहरा है। वैश्विक स्तर पर भी भारत और मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ तेज़ी से बड़ा है। उनकी योजनाओं, जमीनी जुड़ाव और करिश्माई व्यक्तित्व का पूरा लाभ भाजपा को मिला। जिसे पार्टी के नेता और राजनैतिक विश्लेषक भी स्वीकार कर रहें है। बचा हुआ काम विपक्षियों के मोदी पर व्यक्तिगत हमलों ने कर दिया। यह पुराना अनुभव बताता है कि मोदी पर किए गए व्यक्तिगत प्रहार मोदी को लाभ देते आए है। मतदाताओं और क्रिकेटप्रेमियों को यह पसंद नहीं आया कि विपक्षी नेताओं ने मोदी को विश्वकप की हार की वजह बताया। वहीं दूसरी ओर मध्यप्रदेश में भाजपा नेताओं और कार्यकर्ताओं में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह को लेकर जो भी थोड़ा बहुत रोष था, उसे अमित शाह के नेतृत्व में “टीम मोदी” ने अपनी रणनीति से सुलझा लिया। पार्टी नेताओं से संवाद स्थापित किये गए। हारी हुई सीटों पर पहले से ही नाम घोषित कर दिए गए। रणनीति और प्रचार की कमान “टीम मोदी” के हाथ में लिए जाने से सभी अनुशासित हो गए। प्रदेश के बड़े चेहरों को चुनाव में उतारकर उनके समर्थकों और भाजपा कार्यकर्ताओं में जिम्मेदारी का अहसास और उत्साह का संचार पैदा कर दिया, जो गेम चेंजर साबित हुआ।
मंत्र का तीसरा अक्षर है “शिवाय”
यहाँ “शिवाय” शब्द का अर्थ आप सभी समझ ही गए होंगे। यदि कमलनाथ के सवा साल के मुख्यमंत्रित्व काल को छोड़ दिया जाए तो शिवराज सिंह चौहान नवंबर 2005 से लगातार और सर्वाधिक काल के लिए मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहें है। उनके पास लगभग 17 वर्ष का मुख्यमंत्री के रूप में अनुभव है। इतना लंबा समय इस पद पर बिताने से पूरे प्रदेश में वे सर्वाधिक लोकप्रिय नेता के रूप में स्थापित हो गए। उनकी लाडली लक्ष्मी योजना और मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना ने उनके स्थायी मतदाता तैयार कर दिए। मुख्यमंत्री होने के बावजूद लोगों में उनकी सरल और सहज नेता के रूप में छवि बन गई है। उन्होंने बड़ी सफाई से बच्चों और महिलाओं में अपनी “मामा और भैया” वाली अमिट छवि बना ली। प्रदेश में सड़क और बिजली की का सुधार आम जनता में उनके समर्थन का बड़ा कारण रहा है। दिग्विजय सिंह के समय की सड़क और बिजली की समस्याओं का भाजपा समर्थक आजतक उदाहरण देते है। शिवराजसिंह को 2018 के चुनाव में काँग्रेस से ज्यादा मत मिले थे लेकिन सीटें कम थी। सिंधिया के समर्थन से पुनः सत्ता में आने के बाद उन्होंने कोरोना की समस्या का मुकाबला किया और स्थिति सामान्य होते ही सनातन के पैरोकार के रूप में महाकाल लोक, ओम्कारेश्वर में शंकराचार्य प्रतिमा स्थापना जैसे धार्मिक पर्यटन पर फोकस किया। आदिवासी क्षेत्र में पिछले डेढ़ दो साल से ध्यान दे रहें थे। निरंतर जनसम्पर्क से छवि सुधारने का प्रयत्न किया। और अंत में लाडली बहना का मास्टर स्ट्रोक खेला, जिसे राजनैतिक विश्लेषक से लेकर पार्टी के भीतर और बाहर वाले उनके विरोधी भी नकार नहीं सकते है। शिवराज सिंह ने चुनाव प्रचार में ही लगभग 160 से अधिक सीटों पर प्रचार किया तो उसके पहले पूरा प्रदेश भ्रमण कर लिया था। यदि प्रदेश में “मोदी के मैजिक” ने खेल पलट दिया तो “मामा के महिला हितैषी” वाली छवि ने भाजपा को “अजेय” बढ़त दिला दी। यही कारण है कि छह माह पूर्व के ओपिनियन पोल और मतदान के समय के एग्जिट पोल के बीच अंतर सबको दिखने लगा था। और यह नहीं भूलना चाहिए कि पाँचों राज्यों के चुनाव में शिवराजसिंह चौहान ही एक मात्र ऐसे मुख्यमंत्री रहें जिन्होंने अपनी सरकार को बचाया और बढ़त भी दिलाई।
कहाँ चूक गई काँग्रेस??
मध्यप्रदेश में भाजपा की एक तरफा जीत का श्रेय सनातन के लिए आरएसएस की मेहनत, मोदी की छवि और उनकी टीम की रणनीति के साथ शिवराज की महिला मतदाताओं में निर्विवादित लोकप्रियता को मिलना चाहिए तो काँग्रेस की हार पर भी मंथन किया जाना चाहिए। यह विश्लेषण का विषय है कि कैसे काँग्रेस ने एक जीती हुई बाज़ी अपने हाथ से गंवा दी। ईवीएम का पुराना राग ना गाकर यदि परिस्थितियों का अध्ययन करेंगे तो पाएँगे कि काँग्रेस कछुए खरगोश की दौड़ की भांति अपनी जीत पर अतिरिक्त आश्वस्त हो गई थी। जहाँ भाजपा ने हारी हुई सीटों पर उम्मीदवारों की घोषणा काफी पहले ही कर दी थी, वहीं अंत समय तक काँग्रेस में टिकिट वितरण और बदलाव का कार्य चलता रहा। प्रचार की तैयारियों में भाजपा कार्यकर्ताओं के अपने नेताओं के प्रति रोष और एंटी इनकंबेंसी पर काँग्रेस की निर्भरता ज्यादा रही। यानि अपनी ताकत की जगह विरोधी की कमजोरी पर निर्भर रह गए। चुनाव प्रचार के समय जहाँ भाजपा में एकजुटता दिखी, वहीं काँग्रेस में आपसी विवाद और कपड़े फाड़ने वाले बयान सुर्खियों में रहें। काँग्रेस के जीतने की संभावनाएं देखते हुए पार्टी में टिकिट दावेदारों की संख्या काफी बढ़ गई। जिसे टिकिट नहीं मिला वो बागी बन गया। बागियों को साधने और समझाने में काँग्रेस की कोशिशें पर्याप्त साबित नहीं हुई। पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व, पर्यवेक्षक और स्थानीय नेताओं के बीच वो ट्यूनिंग नहीं दिखी जो होनी चाहिए थी। “हम जीत रहें है” की भावना ने अपेक्षाएं तो बढ़ाई लेकिन परिश्रम में कमी कर दी। सिंधिया गुट के विधायकों सहित प्रदेश में कई मंत्री हारे है, यानि यदि काँग्रेस कुछ अतिरिक्त प्रयास करती और योजनाबद्ध तरीके से एकजुटता के साथ चुनाव लड़ती तो शायद परिदृश्य कुछ और होता। ओपीएस के मुद्दे पर कर्मचारियों का साथ मिला लेकिन वह गेम चेंजर नहीं बन सका